तकनीकी मार्गदर्शन
हमारी पीड़ी के बचपन की प्लानिंग अकसर टीवी पर दिखाई जाने वाली हफ्ते की दो हिंदी फिल्मों और दो चित्रहार प्रोग्रामों के इर्द-गिर्द ही घूम लिया करती थी ...उसे कहीं भी आवारा घूमने की फ़ुर्सत ही न मिलती थी...जिस दिन शाम को या रात को टीवी पर फिल्म दिखाने का दिन होता, हमारी सारी प्लॉनिंग सुबह ही से शुरू हो जाती ...स्कूल में भी यही रोमांच बराबर बना रहता है कि सह ले, बेटा, चौहान मास्टर ने कान मरोड़ भी दिए हैं तो ग़म न कर, अंग्रेज़ी वाले सुरिंदर शर्मा सर ने अपनी आस्तीन ऊपर चढ़ा कर एक ज़ोरदार तमाचा लगा ही दिया है तो पर
ये बातें तो हुईं 45-50 साल पुरानी लेकिन अगर आज के दिन भी मेरे जैसे किसी बंदे को रेडियो की इतनी ज़्यादा लत हो कि वह रेडियो के प्रोग्रामों का इंतज़ार करता रहे...विशेषकर रविवार के दिन दोपहर 2 बजने का इंतज़ार करता रहे क्योंकि बाईस्कोप की बातें सुनाई जाने वाली हैं...तो इसे कोई भी कहेगा कि यहां तो उम्र पचपन से भी बढ़ गई लेकिन दिल अभी भी बचपन वाला ही जान पड़ रहा है।